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Jivan Ki Janjire: Astitwa Ki Sawal

"जीवन की जंजीरें: मानव अस्तित्व, बंधन और स्वतंत्रता पर गहरा दार्शनिक प्रश्न"

जीबन को जंजीर मे मै जकड़ा पाया,
कही ये जंजीर भारी पड़ता रहा,
कही ये जंजीर का जाल बड़ता रहा,
मैंने इस जंजीर को तोडना चाहा।

कठिनाई इस बात की थी वह जंजीर क्या थी,
और हम जकड़े हुए ही क्यू थे?
जिंदगी मे बात इतनी बिगड़ गई थी,
कभी ये सवाल नहीं आई की हम जकड़े क्यू है?

कभी ये सवाल नहीं आई की हम कौन है,
और कहा से आई है, हम जकड़े हुए ही क्यू है।
कोई हमें क्यू नहीं बताया, हमारा अस्तित्व क्या है,
हमारा कहा ठिकाना है, और कहा जाना है।

जीबन की जिज्ञासा बढ़ती गई,
उलझन मे हम फसती गई,
कौन किसे समाधान बताये,
हर किसीको फसता हुआ पाया।

जीबन की राज मुझे किसीने नहीं बताया,
मेरा उलझन को कोई नहीं सुलझाया,
कठिनाई से अंदर से आबाज आई,
हम कौन है और कहा से आई।

जीबन की गहरी बात हमें कोई नहीं बताया,
खोजता रहा और गहरी होता चला गया,
इस गहराई की आदि, अनंत की बात कौन बताये,
और आदि अनंत है कहा ये कौन समझाये।

हम बहुत प्यासे थे और हमारा स्वास उखड़ रहे थे,
अंततक प्रयास करते रहे, ना स्वास बचा है, ना प्यास बचा,
और भटके को कौन राह पाकड़ाए, रास्ता भी कौन बताये,
कारण यहाँ हर कोई भटक रहा है।

भटका हुआ हम उसको भी पाया,
जो ज्ञान की चरम सीमा पर पंहुचा था,
जो ज्ञान की फुलझड़ी खिला देता था,
गहरा छाणबीन कर उसे भी फसा हुआ पाया।

क्या कभी कोई सोचा हर कोई यहां क्यों भटके हुए हैं,
हर कोई है क्यों भटक रहे हैं,
किसने यहां जाल बुना है ताना-बाना का,
किसने यह खेल रचाई जन्म और मौत का।

मौत का तमाशा क्यू लगी है, किसका इसमें स्वार्थ है,
अमरता है कहा,क्यू लगी है आनाजाना,
लोग आ रहे है जा रहे है, कितनो ने ये सोचा है,
मौत का तमाशा क्यू मची है, कितनो ये समझा है।

प्रश्न तुमलोग क्यू नहीं पूछे खुदसे या औरो से,
प्रश्न क्यू नहीं पूछे बिद्वान लोगो से, समाधान क्या?
तुम्हे क्या लगता है शतुरमुर्ग की तरह झाड़ी मे सिर छुपाओगे बच जाओगे!
क्यू यहाँ हर कोई यहाँ कर्म बंधन मे फसा हुआ है?

क्यू यहां कोई नहीं पूछा,
क्यू खाना, उठना, बैठना और सोना है,
आलीशान जिंदगी जी कर फेर क्यू जाना है,
क्या कोई बताये आमिर गरीब यहाँ क्यू हुए है।

हज़ारो बिभेद का खेल किसने बनाये,
ऊंच नींच का खेल किसने बनाये,
भेदाभेद जाल यहाँ किसने बिछाये,
सेकंरो जाल किसने फैलाई।

जातपात की खेल किसने रचाया, किसने ये भ्रम फेलाया,
ऊंच नींच का फसाद मे हर किसीको पाया,
तरह तरह के जात किसने बनाये,
तरह तरह के खेल किसने रचाये।

हर कोई यहाँ लड़े क्यू जा रहे है,
हर कोई यहाँ शांति खोजे जा रहे है,
इतना उत्पात क्यू मची है,
कितनो ने ये सोचकर देखा है?

किसने ये समाज बनाई, 
किसने यहाँ परंपरा बनाई,
कभी ये सोचकर देखा है,
दो धारी तलवार मे हमें कौन फसाई है।

किसने ये पाप पुण्य की जाल बनाई,
किसने ये दुनिया बनाई, 
किसने ये हिसाब रचाई,
किसने ये दुनिया चलाई।

बिरह का सुर हज़ारो सुना,
खुशिओ का महल था,
पलकों मे वो क्या हुई,
ये होनी और अनहोनी कौन कराई।

अहंकार की परिसीमा कहां तक है?
माया, मोह, लोभ और क्रोध की सीमा कहा तक है?
कहां तक यह फैली है मन की सीमाएं,
और कहां तक फैला है बिचारों की परी सीमाएं।

बिचारों ने क्यू यहाँ दायरा बनाई,
बिचारों ने यहाँ क्यू तहलका मचाई,
बिचारों ने क्यू बांध रखे है कई सारे लोगो को,
बिचारों ने यहाँ क्यू आग लगाई है?

कभी ये सवाल क्यू नहीं करते,
हम कहा रह रहा है,
हम यहाँ जन्म क्यू लेते है,
और फिर मर क्यू जाते है?

लोग क्यू नहीं सोचते, 
संसार मे इतना लड़ाई क्यू हो रहा है,
लोग क्यू लड़े जा रहे है,
और इसका समाधान क्या है?

बबाल ये क्यू मची है,
मूर्खता मे लोग क्यू जी रहे है,
क्यू ये भागदौड़ मची है,
लोग क्यू थामने की प्रयास नहीं कर रहे है।

एक अंधा बेहोशी हमें क्यू भगाए जा रहे है?
लोग क्यू जीने की मजबूर है मलिनता मे?
लोग क्यू प्रकाश की ओर नहीं जा रहे है?
लोग क्यू समझ नहीं पा रहे है मन की गति को?

मन की गति को कौन जान पाए?
मन की गति को कौन रोक पाए?
मन की गति ने क्यू तांडब मचाई?
मन की गति ने ही क्यू दुनिया बसाई?

1. जीवन के बंधन (जंजीर):-
कविता में जीवन को एक जंजीर के रूप में चित्रित किया गया है, जो इंसान को जकड़कर रखती है। कभी यह जंजीर भारी लगती है, तो कभी इसका जाल फैलता जाता है। कवि इस बंधन से मुक्ति चाहता है, लेकिन समस्या यह है कि जंजीर की प्रकृति क्या है और हम क्यों बंधे हैं, यह समझ नहीं आता। जीवन की भागदौड़ में मूल सवाल दब जाते हैं। यह बंधन सामाजिक, भावनात्मक और दार्शनिक स्तर पर फैला है, जो इंसान को स्वतंत्र होने से रोकता है। कवि की कोशिश इन बंधनों को तोड़ने की है, लेकिन उलझन बढ़ती जाती है।

2. अस्तित्व के मूल सवाल:-
कविता में कवि पूछता है कि हम कौन हैं, कहां से आए हैं और हमारा ठिकाना क्या है। कोई हमें हमारे अस्तित्व के बारे में नहीं बताता। जीवन इतना उलझ गया है कि ये सवाल कभी मन में नहीं आते। हम जन्म लेते हैं, लेकिन उद्देश्य और गंतव्य अज्ञात रहता है। यह प्रश्न इंसान की पहचान और उत्पत्ति से जुड़े हैं, जो अनुत्तरित रहने से दुख बढ़ाते हैं। कवि कहता है कि इन सवालों के बिना जीवन अर्थहीन लगता है।

3. जिज्ञासा और उलझन की बढ़ोतरी:-
जीवन की जिज्ञासा बढ़ने से उलझन और गहराती जाती है। कवि बताता है कि कोई समाधान नहीं देता क्योंकि सब खुद फंसे हैं। जीवन के रहस्य कोई नहीं बताता, जिससे अंदर से आवाज उठती है। खोज जारी रहती है, लेकिन जवाब न मिलने से थकान होती है। यह जिज्ञासा इंसान को गहराई में ले जाती है, जहां अनंत की बात समझ नहीं आती। कविता में यह दिखाया गया है कि जिज्ञासा एक अंतहीन यात्रा है, जो शांति की बजाय अशांति पैदा करती है।

4. सबका फंसा होना:-
कविता में कवि पाता है कि हर कोई जीवन के जाल में फंसा है, यहां तक कि ज्ञान की चरम सीमा पर पहुंचे लोग भी भटके हुए हैं। कोई राह नहीं दिखाता क्योंकि सब भटकाव में हैं। विद्वान भी उलझे मिलते हैं, जो ज्ञान की फुलझड़ी तो दिखाते हैं, लेकिन खुद फंसे रहते हैं। यह दर्शाता है कि समस्या सार्वभौमिक है, कोई अपवाद नहीं। कवि पूछता है कि क्यों सब भटके हैं, जो जीवन की व्यर्थता को उजागर करता है।

5. जीवन के रहस्य और अनंत की गहराई:-
जीवन की गहरी बातें कोई नहीं बताता, खोजते हुए इंसान और गहरा होता जाता है। आदि और अनंत की बात कौन समझाए? कविता में यह दिखाया गया है कि ब्रह्मांड की अनंतता इतनी रहस्यमय है कि समझ से परे है। ज्ञान की प्यास में प्रयास करते हैं, लेकिन स्वास उखड़ जाते हैं। यह हिस्सा दार्शनिक गहराई को छूता है, जहां इंसान की सीमित समझ अनंत के सामने असहाय लगती है। कवि की खोज अनंत की आदि को समझने की है।

6. जन्म-मृत्यु का खेल:-
कविता में जन्म और मौत को एक खेल बताया गया है, जिसका रचयिता अज्ञात है। मौत एक तमाशा लगती है, जहां लोग आते-जाते हैं, लेकिन अमरता कहां है? किसका इसमें स्वार्थ है? यह चक्र व्यर्थ लगता है, लेकिन कितने लोग सोचते हैं। कवि पूछता है कि यह ताना-बाना किसने बुना। जन्म-मृत्यु का रहस्य जीवन को रहस्यमय बनाता है, जो इंसान को प्रश्नों के घेरे में डालता है। यह हिस्सा अस्तित्व की अनिश्चितता पर जोर देता है।

7. सामाजिक भेदभाव और जाल:-
कविता में ऊंच-नीच, जाति-पाति, अमीर-गरीब जैसे भेदों को मानव-निर्मित जाल कहा गया है। किसने ये खेल रचे? समाज और परंपराएं दोधारी तलवार की तरह फंसाती हैं। हजारों विभेदों का ताना-बाना किसने बुना? यह भेदभाव लोगों को लड़ाता है, शांति की खोज कराता है। कवि कहता है कि इतना उत्पात क्यों, लेकिन कोई सोचता नहीं। यह हिस्सा समाज की कृत्रिम संरचनाओं पर सवाल उठाता है, जो इंसान को बांटती हैं।

8. पाप-पुण्य और दुनिया की रचना:-
किसने पाप-पुण्य की जाल बनाई, दुनिया किसने चलाई? कविता में दुनिया को एक हिसाब-किताब बताया गया है, जहां होनी-अनहोनी होती रहती है। विरह और खुशी के महल पलक झपकते बदल जाते हैं। यह हिस्सा नैतिकता और दुनिया के नियमों पर सवाल करता है। कवि पूछता है कि यह सब किसकी रचना है, जो इंसान को कर्म बंधन में फंसाती है। दुनिया की रचना एक बड़ा रहस्य है, जो समझ से परे है।

9. अहंकार, माया और भावनाओं की सीमाएं:-
अहंकार, माया, मोह, लोभ, क्रोध की सीमाएं कहां तक? कविता में विचारों की परिसीमाएं अनंत बताई गई हैं, जो दायरा बनाती हैं और आग लगाती हैं। विचारों ने तहलका मचाया है, लोगों को बांधा है। कवि कहता है कि विचार ही समस्याओं का स्रोत हैं। यह हिस्सा भावनाओं और विचारों की अराजकता पर जोर देता है, जो जीवन को जटिल बनाती हैं। इंसान इनकी गति को समझ नहीं पाता।

10. मन की गति और दुनिया का स्रोत:-
मन की गति को कौन जान पाए या रोक पाए? कविता में मन की गति को दुनिया बसाने वाला बताया गया है, जो तांडव मचाती है। लोग अंधी बेहोशी में दौड़ते हैं, मलिनता में जीते हैं, प्रकाश की ओर नहीं जाते। कवि पूछता है कि मन की गति क्यों समझ नहीं आती। यह हिस्सा मन को सबका मूल कारण बताता है, जो दुनिया की भागदौड़ और बवाल पैदा करता है। मन को नियंत्रित करना मुक्ति का रास्ता है।

निष्कर्ष:-
यह कविता जीवन की गहन दार्शनिक खोज को दर्शाती है, जहां इंसान बंधनों, रहस्यों और भटकाव में फंसा है। मुख्य पॉइंट्स अस्तित्व के सवालों, सामाजिक जालों और मन की अराजकता पर केंद्रित हैं, जो अपील करते हैं कि लोग चिंतन करें और सवाल पूछें। निष्कर्ष यही है कि जीवन एक अनंत जिज्ञासा है, लेकिन आत्म-जागरूकता और मन की गति को समझकर मुक्ति संभव है। यह कविता इंसान को शुतुरमुर्ग की तरह छिपने की बजाय सत्य की खोज करने की प्रेरणा देती है, ताकि व्यर्थता से ऊपर उठ सकें।

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