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Badlav Ki Goonj: Woh Shaant Jagah Ab Nahi Rahi.

जीबन की बुनियाद आज हिलने लगे,
लोगो से भरपूर ये दुनिया आज कुछ कहने लगे,
अशांत मेरा मन कुछ खोजने लगे, मै यु ही भटकता रहा,
वह परम शांति की तलाश मे कहा खो गए,

लिखा हु मै कुछ अर्थहीन बाते,
कहा हु मै कुछ बेकार की बाते,
किसी से हुआ होगा मेरा आँखमिचोली,
हम समझ ना पाए गहराई की बाते,
हम यु ही खोजता रहा वह शांति की तलाश मे।

दुनिया मे आज भीड़ बड़ा है,
शांत स्थान अब नहीं रहा,
दुनिया मे भीड़ बढ़ती ही जा रहा है,
इस भीड़ मे तरह तरह के लोग देखे,
इस भीड़ को देख के लगता है, भाबनाहीन प्राणी।

किसी से भी बात करू क्यू कहते है करकश की भाषा,
क्यू बिलुप्त हो रहे है मधुर बानी,
क्यों मिलते हैं लोग बाद बिबाद में,
क्यों लोग कह नहीं पाते दिल छूने की भाषा,
क्यू लोग भूलते जा रहे है प्रेम की भाषा,
जो अब शांत स्थान नहीं रहा।

मन मेरा मोह भंग हुआ,
कहां खो गए वह अपरूप सुंदरता,
पक्षियों के सुमधुर वाणी, हवा की लहर,
कंक्रीट ने जाल बिछाई है,
ऊंची ऊंची बिल्डिंग भर गई है।

मां की ममता आज कह नहीं पाते मोहमयी भाषा,
बाप की प्रेम आज दिखावा हो गए,
रिश्तेदार पड़ोशी अब स्वार्थी हो गए,
किसी को भी देखो, सबकी मन में कलुषता भरे है,
भीड़ तो बढ़ रहे हैं, लेकिन सच्चा मानव कहां खो रहे हैं।

शांत स्थान अब नहीं रहा,
हर जगह भीड़ सिर्फ भीड़,
रास्ते पे, बस मे, ट्रैन मे सिर्फ भीड़,
कहां खो गए वह सब पक्षीया,
जो सुबह दुनिया को नींद से जगाती है।

कितना महंगा हो गया कोयल की मधुर वाणी,
कितना महंगा हो गया मयूर की वह सुंदर नृत्य,
अत्यधिक शहरीकरण और पेड़ पौधा का कटान जारी है,
प्रकृति हमें शब्दहीन प्रतिवाद में कुछ कह रही है,
जो हमें सुनाई और दिखाई नहीं देता।

कहां खो गए निरबता के साथ वहमान नदिया,
कहां खो गए असंख्य रंग बिरंगी मछलियां,
शीतलता देनेवाला बहमान हवा की लहर आज लुप्त हो रहे है,
हरा भरा हरियाली और फूलों की सुगंध मन मोह लेता है,
निश्चित ही वह हरियाली आज लुप्त हो रहे है।

नदी, नाला, खाल और बिल से कहा गायब हो रहे है परियायी पक्षियों के भीड़,
कम हो रहे हैं प्रकृति की अपरूप सुंदरता,
निझुम निशुती रात को उजाला देने वाला वह जुगनू आज कहा खो गए,
किसीको सुनाई नहीं दे रहा है वह मधुर आबाज, वह रात जागनेवाला पक्षी,

भीड़ बढ़ती ही जा रहे हैं,
शांत स्थान अब कम हो रहे हैं,
लुप्त हो रहे हैं हमदर्दी की भाषा,
बड़ती ही जा रहे हैं अनकहा प्रतिस्पर्धा की भाषा,
उन्मादी भीड़ ने उधम मचाई है,
इस भीड़ को देखकर लगता है स्वप्नहीन प्राणी।

खोजता हु मै मधुर कंठ मे संगीत सुनानेवाला वह पक्षियों के झुण्ड,
धीरे धीरे लुप्त हो रहे है जंगली जानवर का झुण्ड,
मै यु ही भटकता रहा, खाता मे मै बेसुरो गीत लिख रखा,
अस्थिर मन मेरा, मै लगा हु शांति की तलाश मे।

लोगो से जब मिलता हु, लोग कह नहीं पाते ज्ञान की भाषा,
लोगो के अंदर से लुप्त हो रहे है प्रेम की भाषा,
हर किसी का चेहरे पे असंतुष्टि की भाब,
लोग मिल नही पा रहे खुशिओ के साथ, भीड़ तो आज बढ़ रहे है,
लेकिन मानबता की वह अंदाज आज लुप्त हो रहे है।

नहीं है निरबता आज शहर मे या गाँव मे,
थका हुआ शरीर मे सोया हु,
देखा हु मन मोह देनेवाला सपना,
एक सुन्दर नारी मेरा मन बहलाये जा रहा था,
याद नहीं आता पहले कभी देखा हु ऐसा सुन्दरी नारी,
लग रहा है स्वर्ग की अप्सरा से भी बहुत सुन्दरी नारी।

कह रहा था मुझे कुछ मन भुलाने की बाते,
कह रहा था मुझे कुछ प्रेम की बाते,
अचानक बिकट आबाज मे मेरा अधूरा नींद टूट गई,
वह लास्यमयी नारी मेरा ऊपर अटटोहास कर रहा था,
मै तो बिस्तर पे बेबाक यु ही पड़ा रहा।

"Badlav ki Goonj: Woh Shaant Jagah Ab Nahi Rahi – शहरीकरण और भीड़ में मिटती शांति, टूटते रिश्ते और पर्यावरण विनाश का मार्मिक चित्रण।"

1. जीवन की अस्थिरता और शांति की तलाश:-
आज का इंसान भौतिक दौड़ में इतना उलझ गया है कि जीवन की बुनियाद हिलने लगी है। मन की शांति धीरे-धीरे खोती जा रही है और इंसान लगातार अशांत और अस्थिर महसूस कर रहा है। हर व्यक्ति भीतर ही भीतर शांति की तलाश में भटक रहा है, लेकिन उसे वह परम शांति नहीं मिल पा रही। यह कविता इस बेचैनी और भटकाव को दर्शाती है, जहाँ मनुष्य अपने अस्तित्व और आत्मा की गहराई को समझ नहीं पा रहा। आधुनिक जीवन का शोर असली सुकून और आत्मिक संतुलन को दबा चुका है।

2. भीड़ और शोरगुल से भरी दुनिया:-
दुनिया में भीड़ लगातार बढ़ रही है, लेकिन इस भीड़ में इंसानियत और आत्मीय जुड़ाव खोता जा रहा है। लोग एक-दूसरे से जुड़ने के बजाय सिर्फ बाहरी दिखावे में लगे हैं। संवाद की जगह करकश आवाज़ें और विवाद बढ़ रहे हैं। शांति और सुकून भरे स्थान अब दुर्लभ हो चुके हैं। यह स्थिति समाज में मानसिक अशांति और आंतरिक खालीपन को जन्म देती है। कविता के माध्यम से संदेश दिया गया है कि बढ़ती भीड़ हमें साथ लाने के बजाय और अधिक अलगाव की ओर धकेल रही है।

3. प्रकृति का विनाश और शहरीकरण:-
अत्यधिक शहरीकरण और विकास की अंधी दौड़ ने प्रकृति की सुंदरता को लुप्त कर दिया है। पेड़-पौधों की कटाई, हरियाली का नाश और पक्षियों की मधुर आवाज़ का गायब होना इस त्रासदी को उजागर करता है। पक्षियों का गीत, नदियों की कल-कल ध्वनि और ताज़ी हवा अब दुर्लभ हो चुकी है। कविता इस बात को रेखांकित करती है कि इंसान ने प्रगति के नाम पर प्राकृतिक खज़ानों को मिटा डाला है। यह चेतावनी है कि यदि हम प्रकृति का सम्मान नहीं करेंगे तो आने वाली पीढ़ियों को केवल शोरगुल और प्रदूषण ही मिलेगा।

4. मानवीय संबंधों का पतन:-
आज रिश्तों की आत्मीयता और प्रेम स्वार्थ और दिखावे में बदल चुके हैं। मां की ममता, पिता का प्रेम और पड़ोसी का अपनापन अब पहले जैसा नहीं रहा। हर इंसान अपने लाभ और हित के पीछे भाग रहा है, जिससे समाज में प्रेम और विश्वास की कमी हो गई है। कविता इस स्थिति पर सवाल उठाती है कि जब हर चेहरा असंतोष और कलुषता से भर जाएगा तो इंसानियत का भविष्य कैसा होगा। वास्तविक रिश्तों के टूटने और मानवीय भाषा के खो जाने से समाज और अधिक विभाजित और अकेला होता जा रहा है।

5. मानवता का खो जाना:-
भीड़ बढ़ रही है, लेकिन सच्चा मानवता का अंदाज लुप्त हो रहा है। लोग प्रेम और दया की भाषा भूल चुके हैं और हर व्यक्ति केवल प्रतिस्पर्धा और विवाद में उलझा हुआ है। चेहरे पर मुस्कान और मन में सहानुभूति अब दुर्लभ हो गई है। कविता यह दर्शाती है कि असली इंसानियत कहीं भीड़ के पीछे छिप गई है। इस स्थिति में इंसान एक मशीन की तरह जी रहा है, जिसमें भावनाओं और आत्मीयता की जगह केवल लाभ और प्रतिस्पर्धा बची है। यह खोती हुई मानवता हमारे अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है।

6. स्वप्न और विडंबना:-
कविता के अंत में कवि थकान के बीच एक सुंदर स्वप्न देखता है। उसमें एक नारी का स्वरूप उसे शांति और प्रेम का अहसास कराता है। यह नारी प्रतीक है उस खोई हुई शांति और सुंदरता का, जिसे इंसान ढूंढ रहा है। लेकिन यह सपना अचानक शोरगुल की कठोर आवाज़ से टूट जाता है। यथार्थ में लौटकर कवि देखता है कि वह सुंदरता केवल एक मृगतृष्णा थी। यह विडंबना बताती है कि शांति और सुख केवल कल्पना में ही रह गए हैं, जबकि वास्तविक दुनिया शोर और अशांति से भरी हुई है।

निष्कर्ष:-
इस कविता का संदेश स्पष्ट है कि आधुनिक जीवन, भीड़, स्वार्थ और शहरीकरण ने न केवल प्रकृति की सुंदरता को छीन लिया है बल्कि इंसान की आत्मीयता और मानवता को भी मिटा दिया है। इंसान शांति और प्रेम की तलाश में भटक रहा है, लेकिन उसे केवल शोर, भीड़ और अशांति ही मिल रही है। यह कविता हमें चेतावनी देती है कि यदि हमने अभी भी प्रकृति और मानवता का सम्मान नहीं किया तो आने वाला कल और भी भयावह होगा। वास्तविक शांति पाने के लिए हमें सरलता, प्रेम और प्रकृति के साथ संतुलन में जीना सीखना होगा।

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